भारत के तकनीकी और रक्षा भविष्य की चाबी: 2025 में दुर्लभ पृथ्वी धातुओं की रणनीतिक भूमिका

Observation- Mantra
By -
0

"एक अनदेखा ख़ज़ाना: भारत के भविष्य की चाबी"

सच कहूं... मुझे इस विषय पर लिखते हुए थोड़ी हैरानी हो रही है। वजह? शायद इसलिए कि हमने, एक देश के तौर पर, एक ऐसी चीज़ को लगातार नजरअंदाज़ किया है जो हमारे भविष्य की नींव बन सकती थी—रेयर अर्थ मेटल्स (Rare Earth Metals)

आपने भी शायद यह नाम किसी समाचार में या फिर किसी विदेशी टेक कॉन्फ्रेंस के दौरान सुना होगा, लेकिन इसकी अहमियत क्या है? और क्यों भारत को अब इस ओर देखना चाहिए? चलिए बात करते हैं।

भारत में दुर्लभ पृथ्वी धातुओं की खोज और खनन की संभावनाएं, तकनीकी प्रगति, रक्षा क्षेत्र और इलेक्ट्रिक वाहनों में उपयोग को दर्शाने वाली स्टॉक शैली की डिजिटल छवि


"जब दुनिया बदल रही हो, तो खज़ाने छिपे नहीं रहने चाहिए"

आजकल हम बात करते हैं AI, automation, EVs, smartphones, drones, और यहाँ तक कि defense tech जैसे advanced missile systems की। लेकिन इनमें एक साझा तत्व है — rare earth elements।

बचपन में जब हम मोबाइल हाथ में पकड़ते थे, शायद ही कभी सोचा होगा कि इसके अंदर की चिप, स्पीकर, या touch vibration में कुछ ऐसा भी है जो केवल कुछ देशों के पास होता है। और भारत उन देशों में नहीं था — कम से कम अब तक।

रेयर अर्थ मेटल्स हैं क्या?

सीधी भाषा में कहें तो ये 17 तत्वों का एक समूह है, जैसे — लैंथेनम, नियोडिमियम, समारियम आदि। ये तत्व जमीन के अंदर छिपे होते हैं, और इनकी मात्रा बहुत कम होती है, इसलिए नाम पड़ा "रेयर"।

पर इनका इस्तेमाल हर जगह है — मोबाइल फोन से लेकर फाइटर जेट्स तक, विंड टरबाइन्स से लेकर EV बैटरियों तक।

थोड़ा तकनीकी लग रहा है? चलिए एक उदाहरण देते हैं — जब आप अपने स्मार्टफोन को silent mode में रखते हैं और वो हल्की सी vibration करता है, उस tiny मोटर में भी rare earth का ही योगदान है।

Wikipedia का यह पेज इन तत्वों का वैज्ञानिक विवरण बखूबी बताता है।

भारत का क्या है भविष्य?

एक समय था जब चीन ने दुनिया के rare earth production का लगभग 90% हिस्सा अपने हाथ में लिया हुआ था। और भारत...? हम या तो आयात करते थे या मौन रहते थे।

लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। भारत ने critical minerals strategy अपनाई है, exploration बढ़ा है, और प्राइवेट सेक्टर को जोड़ने की पहल की जा रही है।

भारत के आंध्र प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में rare earth की संभावना है। अब बस जरूरत है — राजनीतिक इच्छाशक्ति, तकनीकी इनोवेशन और आर्थिक आत्मनिर्भरता की सोच की।

क्या आपने कभी गौर किया?

हम हर साल 100 बिलियन डॉलर से अधिक का टेक्नोलॉजी सामान आयात करते हैं। अगर भारत खुद इन तत्वों को refine करके use करना शुरू कर दे, तो सिर्फ टेक्नोलॉजी में ही नहीं, रोज़गार, डिफेंस, और विदेश नीति में भी क्रांति आ सकती है।

हमने तो धर्म और विज्ञान के बीच एक अलग पुल बनाया है — और शायद यह समय है कि हम उस पुल को आर्थिक भविष्य की ओर मोड़ें।

एक छोटी सी कहानी...

मुझे याद है, कुछ साल पहले जब मैं विशाखापत्तनम गया था। एक स्थानीय भूगर्भशास्त्री ने मुझे कहा था, “हमारे पास तो सोना है ज़मीन के नीचे, पर हमें उसकी चमक ही नहीं दिखती।”

शायद वो बात अब समझ आ रही है — rare earth एक नया सोना है। लेकिन फर्क बस इतना है कि इसे खनन नहीं, सोच से निकाला जाता है।

क्या अब भारत तैयार है इस ख़ज़ाने को पहचानने के लिए?

इस विषय पर विस्तृत श्रृंखला अगले भाग में जल्द प्रकाशित होगी।

डिस्क्लेमर: इस पोस्ट में उल्लिखित उदाहरण और घटनाएँ केवल विचारों की व्याख्या के लिए हैं। इनका उद्देश्य किसी भी संगठन, व्यक्ति, या नीति की निंदा या समर्थन नहीं है।

भारत को 2025 में रेयर अर्थ मेटल्स की ज़रूरत क्यों है?

एक दौर था जब हम मोबाइल चार्जर के तार उलझाने में उलझे रहते थे, और आज AI यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता खुद हमारे सवालों के जवाब दे रही है। सोचिए, ये तकनीकी छलांग एकदम से नहीं लगी—इसके पीछे एक अदृश्य तत्व है, रेयर अर्थ मेटल्स

मैंने जब पहली बार इस शब्द को सुना, तो लगा, कोई विज्ञान की गूढ़ शब्दावली होगी। लेकिन जब समझा, तो लगा—“अरे, ये तो वही धातुएँ हैं जिनसे भारत का भविष्य जुड़ा है।”

भारत की टेक्नोलॉजी क्रांति और इन धातुओं की भूमिका

2025 में भारत तकनीक के मामले में एक क्रांति की ओर बढ़ रहा है—AI, इलेक्ट्रिक वाहन (EV), सोलर पैनल्स, रोबोटिक्स—इन सबमें एक बात कॉमन है: Rare Earth Metals

EV के लिए मोटर चाहिए, उसमें चाहिए neodymium। सोलर पैनल में lanthanum और AI सर्वर के कूलिंग सिस्टम में yttrium। अगर ये मेटल्स न हों, तो भारत की EV क्रांति का पहिया ही नहीं घुमेगा।

सरल भाषा में कहें तो, रेयर अर्थ मेटल्स किसी देश की 'टेक-रीढ़' होती हैं। बिना इनके, ना रक्षा प्रणाली उन्नत बन सकती है, ना AI सर्वर सुचारू रूप से काम कर सकते हैं।

विदेशी निर्भरता बनाम आत्मनिर्भर भारत

भारत आज भी इन मेटल्स के लिए चीन पर बहुत अधिक निर्भर है। और यही चिंता की बात है। अगर सप्लाई बाधित हुई, तो AI और Automation की दौड़ में हम पिछड़ सकते हैं।

2025 में आत्मनिर्भर भारत का सपना केवल कृषि या रक्षा क्षेत्र तक सीमित नहीं है। यह खनिज संसाधनों में आत्मनिर्भरता के बिना अधूरा है।

नीतियों और रणनीति की भूमिका

सरकार ने Invest India जैसे प्लेटफॉर्म के माध्यम से रेयर अर्थ एलिमेंट्स पर ध्यान देना शुरू किया है।

पर ground reality यह है कि अभी भारत में इनका व्यापक खनन, शोध और परिष्करण की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। अगर भारत को global tech hub बनना है, तो यह सबसे पहले सुलझाना होगा।

आम नागरिक और ब्लॉगर्स की भूमिका

यह मुद्दा केवल सरकार या वैज्ञानिकों का नहीं है। ब्लॉगर्स और कंटेंट क्रिएटर्स को भी इन मुद्दों पर खुलकर बात करनी चाहिए। क्योंकि बदलाव तब आता है जब जनता जागरूक होती है।

अगर हम गहराई से सोचें, तो यह नारा—“रेयर अर्थ, भारत की असली पूँजी”—2025 का सबसे जरूरी विचार बन सकता है।

अगली कड़ी: क्या भारत इन मेटल्स में आत्मनिर्भर बन सकता है? रणनीति क्या होनी चाहिए? इस पर हम अगले भाग में चर्चा करेंगे।

भारत की रक्षा रणनीति में रेयर अर्थ मेटल्स की अपरिहार्यता

एक बार रक्षा पत्रकारिता में काम करते समय मुझे एक वरिष्ठ सैन्य अफसर ने कहा था—“युद्ध अब सिर्फ गोलियों का नहीं, तकनीक का खेल है। और तकनीक का आधार है rare earth elements।”

रेयर अर्थ मेटल्स… सुनने में छोटा लगता है, लेकिन इसकी कीमत इतनी है कि चीन जैसे देश इन्हें “strategy metals”

आधुनिक हथियारों की आत्मा हैं रेयर अर्थ एलिमेंट्स

क्या आपने कभी सोचा है कि एक मिसाइल को अपने लक्ष्य तक इतनी सटीकता से पहुंचाने वाली guidance system कैसे काम करती है? या फिर एक stealth jet रडार से कैसे बच निकलता है?

इन सभी में काम आता है: neodymium, dysprosium, samarium—यानी वही rare earth metals जो आम लोगों की नज़रों से दूर रहते हैं।

DRDO की कई high-end technologies, जैसे अग्नि मिसाइल, anti-satellite weaponry, laser-guided systems, सबके पीछे कहीं न कहीं rare earth compounds की भूमिका होती है।

भारत का आत्मनिर्भर रक्षा सपना—कहाँ तक?

हमारे देश ने “Make in India” के तहत रक्षा उत्पादन को बढ़ावा देने का बीड़ा उठाया है। लेकिन क्या बिना rare earth मेटल्स के हम यह सपना पूरा कर सकते हैं?

वास्तविकता यह है कि आज भी rare earth की global supply chain पर चीन का लगभग 85% नियंत्रण है। ऐसे में भारत जैसे देश के लिए यह एक रणनीतिक खतरा बनता जा रहा है।

भारत के रक्षा बजट को देखें तो उसमें हथियारों के आधुनिकीकरण के लिए पर्याप्त प्रावधान हैं। लेकिन सवाल है—क्या हमारी rare earth जरूरतों को भारत में ही पूरा करने की नीति है?

समाधान कहाँ से आएगा?

भारत में ओडिशा, आंध्रप्रदेश, केरल जैसे राज्यों में rare earth deposits पाए जाते हैं। लेकिन इनका दोहन बहुत सीमित है।

सरकार को चाहिए कि वह इस सेक्टर में private investment को आमंत्रित करे, और साथ ही environmental safeguards के साथ आगे बढ़े।

ब्लॉगर और जनजागरूकता—हमारी भूमिका क्या?

रक्षा सिर्फ सेना की ज़िम्मेदारी नहीं, यह एक राष्ट्र की सामूहिक चेतना से बनती है। इसलिए ब्लॉगर्स, शिक्षक, विद्यार्थी—हर किसी को इस विषय पर लिखना और पढ़ना चाहिए।

हमारे Seer Mantra ब्लॉग पर हम पहले भी AI और तकनीकी आत्मनिर्भरता पर विस्तार से लिख चुके हैं। यह समय है रक्षा पर भी वैसा ही दृष्टिकोण अपनाने का।

तो अगली बार जब आप रक्षा बजट पर बहस होते देखें, पूछिए—rare earth का क्या हुआ?

रेयर अर्थ मेटल्स पर वैश्विक संघर्ष: भारत बनाम चीन

"तुम्हें पता है, जब मैंने पहली बार सुना कि चीन दुनिया के 80% से ज़्यादा रेयर अर्थ मेटल्स का उत्पादन करता है, तो मेरा पहला सवाल था — तो फिर हम क्या कर रहे हैं?"

यह सवाल सिर्फ मेरा नहीं है। यह सवाल हर उस भारतीय का होना चाहिए जो भारत को तकनीक, रक्षा और ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनते देखना चाहता है।

चीन की पकड़: सिर्फ व्यापार नहीं, रणनीति

रेयर अर्थ मेटल्स जैसे कि नियोडिमियम, डाइसप्रोसियम, लैंथेनम आदि, चीन ने न केवल खनन किए, बल्कि दुनिया की प्रोसेसिंग यूनिट्स का 85% हिस्सा अपने कब्जे में रखा। China’s Monopoly on Rare Earth Metals पर इस विश्लेषण को जरूर पढ़ें।

2009 में चीन ने जापान को रेयर अर्थ मेटल्स की सप्लाई रोक दी थी — सिर्फ एक राजनीतिक विवाद के कारण। सोचिए, अगर यही भारत के साथ हो गया तो?

भारत की निर्भरता: आत्मनिर्भरता के सपने में दरार

भारत में रेयर अर्थ का भंडार तो है, खासकर झारखंड, ओडिशा और आंध्र प्रदेश में। पर दिक्कत यह है कि हम खुद इन्हें प्रोसेस नहीं कर पा रहे

नतीजा? चीन से आयात। और यह निर्भरता न सिर्फ आर्थिक बल्कि रणनीतिक कमजोरी भी बनती जा रही है।

रेयर अर्थ और भू-राजनीति का गठबंधन

आज की वैश्विक राजनीति में तेल और गैस की जगह रेयर अर्थ ने ले ली है। जिसकी मुठ्ठी में रेयर अर्थ, उसकी आवाज़ G20 से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक गूंजती है।

भारत को चाहिए कि वह इस दौड़ में सिर्फ दौड़े नहीं, बल्कि रणनीति और निवेश से मैदान में उतरे।

रेयर अर्थ मेटल्स कोई फैंसी शब्द नहीं हैं। ये वही तत्व हैं जो हमारे फोन, सैटेलाइट, मिसाइल और सौर ऊर्जा उपकरणों में होते हैं। और यही कारण है कि यह मुद्दा सिर्फ खनन नहीं, राष्ट्रीय सुरक्षा का भी है।

क्या भारत तैयार है? यह सवाल अब टालने का नहीं, जवाब देने का समय है।

भारत की रणनीतिक योजनाएँ: आत्मनिर्भरता की ओर

कभी-कभी लगता है कि 'आत्मनिर्भर भारत' एक नारा भर है। लेकिन जब हम दुर्लभ मृदा धातुओं (rare earth metals) की बात करते हैं, तो यह नारा अचानक राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल बन जाता है। और यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है।

दुनिया तेज़ी से तकनीकी हो रही है—AI, EVs, और सेमीकंडक्टर हमारी आने वाली अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनते जा रहे हैं। पर इन सभी के लिए ज़रूरत होती है उन्हीं दुर्लभ धातुओं की, जो अभी भारत के पास सीमित मात्रा में हैं।

आत्मनिर्भर भारत और खनिज रणनीति

सरकार ने हाल के वर्षों में ‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’ के तहत घरेलू स्तर पर संसाधनों की खोज और निष्कर्षण को प्राथमिकता दी है। खासकर Atomic Minerals Directorate और IREL जैसी एजेंसियाँ अब सक्रिय रूप से इन धातुओं की खोज कर रही हैं।

पर सवाल ये है — क्या यह काफी है? शायद नहीं। क्योंकि केवल खनन ही नहीं, इनका प्रसंस्करण (processing) और वैश्विक स्तर पर आपूर्ति श्रृंखला (supply chain) खड़ा करना भी जरूरी है। और इसमें हमें चीन से स्पर्धा करनी है, जो इस क्षेत्र का निर्विवाद बादशाह है।

नीतियों से ज़्यादा ज़मीन पर क्रियान्वयन ज़रूरी

सरकार ने 2023 में Critical Minerals Policy जारी की, जिसमें rare earth metals की रणनीतिक सूची बनाई गई है। इसके अलावा ‘Make in India’ के तहत इलेक्ट्रॉनिक्स और EV मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने वाली योजनाएँ भी शुरू की गई हैं। पर नीति तब तक बेअसर है जब तक निवेश, तकनीक और कुशल श्रमबल का संतुलन न हो।

और यही चुनौती है — हम नीतियाँ तो बना लेते हैं, पर क्रियान्वयन में अक्सर दम तोड़ देते हैं।

भूमिगत रणनीति से भू-राजनीति तक

भारत को केवल खनन नहीं, कूटनीतिक भागीदारी की भी ज़रूरत है। ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका जैसे देशों के साथ rare earth पर द्विपक्षीय समझौते अब ज़रूरी हो चुके हैं।

ये समझौते भारत को न केवल तकनीक ट्रांसफर करवा सकते हैं, बल्कि वैश्विक बाजार में भरोसेमंद आपूर्तिकर्ता के रूप में स्थापित भी कर सकते हैं। और शायद यही वह रास्ता है जो आत्मनिर्भरता को केवल घरेलू एजेंडा नहीं, एक वैश्विक रणनीति बना सकता है।

आगे अगर भारत को rare earth superpower बनना है, तो उसे केवल ज़मीन में नहीं, नीति और साझेदारी में भी गहराई से उतरना होगा। क्योंकि आत्मनिर्भरता कोई गारंटी नहीं — यह एक सतत साधना है।

सरकारी पहलकदमियाँ: नीतियाँ जो भारत को संसाधन-संपन्न बना रही हैं

आपने कभी गौर किया है? जब भी कोई बड़ा अंतरराष्ट्रीय व्यापार समझौता होता है, तो उसके पीछे रणनीतिक संसाधनों की खोज जरूर छिपी होती है। और रेयर अर्थ मेटल्स — ये वही छिपे हुए मोती हैं जिन पर अब भारत सरकार की नजर टिकी हुई है।

हाल के वर्षों में भारत ने अपनी खनिज रणनीति को पूरी तरह से पुनर्गठित किया है। Invest India की रिपोर्ट बताती है कि भारत ऑस्ट्रेलिया, वियतनाम, रूस जैसे देशों के साथ रेयर अर्थ खनन के लिए रणनीतिक साझेदारियाँ बना रहा है। इससे दो लक्ष्य पूरे होते हैं — एक, आपूर्ति की सुरक्षा और दो, आत्मनिर्भरता की ओर एक मजबूत कदम।

सरकार ने "राष्ट्रीय खनिज अन्वेषण नीति" के तहत रेयर अर्थ जैसे महत्वपूर्ण खनिजों की पहचान और दोहन को प्राथमिकता दी है। साथ ही “Critical Minerals List” में भी इन तत्वों को शामिल किया गया है, जिससे निजी निवेश को प्रोत्साहन मिले।

2024 में लॉन्च हुए भारतीय रेयर अर्थ मिशन का लक्ष्य स्पष्ट है — भारत को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में एक जिम्मेदार और सशक्त खिलाड़ी बनाना। इसके अंतर्गत खनिज संसाधनों की खोज, सतत खनन, और टेक्नोलॉजी इनफ्रास्ट्रक्चर का विस्तार किया जा रहा है।

परंतु केवल खनन नहीं... भारत सरकार अब Processing Units पर भी जोर दे रही है ताकि कच्चे माल को यहीं पर प्रोसेस किया जा सके और मूल्य संवर्धन देश में हो, निर्यात नहीं। यह रणनीति चीन के प्रभुत्व को चुनौती देने की दिशा में भी एक ठोस प्रयास है।

सरकार ने Make in India और PLI (Production Linked Incentive) स्कीम्स में रेयर अर्थ आधारित उद्योगों को शामिल कर दिया है। इसका सीधा फायदा — इन तत्वों का उपयोग करने वाले EV, सेमीकंडक्टर, रक्षा और सोलर सेक्टर को मिलेगा।

और हाँ, अगर आपने अभी तक हमारा भारत की टेक्नोलॉजी ग्रोथ पर लिखा पिछला लेख नहीं पढ़ा है, तो जरूर देखिए। यह सेक्टर ही इन पहलों को धरातल पर उतार रहा है।

निष्कर्ष? सरकार की यह पहलें न केवल भारत को आत्मनिर्भर बना रही हैं, बल्कि वैश्विक राजनीति में रणनीतिक ताकत भी दे रही हैं। लेकिन इन पहलों की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि क्या हम, आम नागरिक और ब्लॉगर, इसके पीछे के विज़न को समझकर जागरूकता फैला सकते हैं?

भविष्य में निवेश: भारत की रेयर अर्थ बाजार में भूमिका

"तुम जानते हो, कुछ खजाने ज़मीन के नीचे छिपे होते हैं — और कुछ हमारी नज़र से।" जब मैंने पहली बार भारत की लिथियम भंडार पर रिपोर्ट पढ़ी, तो यही विचार मन में आया। दुनिया जिस तकनीक की ओर दौड़ रही है — चाहे वो EV गाड़ियाँ हों, बैटरियाँ, या मिसाइलें — उसका आधार कहीं गहरे दबा हुआ है।

भारत के दुर्लभ खनिज भंडार: एक अपार संभावना

भारत के पास पूर्वी तट, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और झारखंड में बड़े पैमाने पर रेयर अर्थ धातुओं के भंडार मौजूद हैं। रेयर अर्थ एलिमेंट्स (REE) जैसे नियोडाइमियम, लैन्थेनम, सेरियम, और अब लिथियम — ये सभी अगली सदी की औद्योगिक रीढ़ हैं।

सरकारी रिपोर्ट्स के मुताबिक जम्मू-कश्मीर के रियासी जिले में करीब 59 लाख टन लिथियम के भंडार मिले हैं। ये वही लिथियम है जो हर इलेक्ट्रिक वाहन की बैटरी में काम आता है। तो ज़रा सोचिए — क्या भारत केवल उपभोक्ता बना रहेगा या निर्माता भी?

ग्लोबल मार्केट में भारत की रणनीतिक स्थिति

वर्तमान में चीन रेयर अर्थ सप्लाई का लगभग 60-70% नियंत्रित करता है। ऐसे में भारत के लिए एक रणनीतिक मौका है — घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहित कर, वह इस बाजार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ा सकता है।

यही कारण है कि आत्मनिर्भर भारत जैसी पहलें केवल नारा नहीं, बल्कि एक नीति बन चुकी हैं। नीति आयोग, MEITY और भारतीय खनन मंत्रालय मिलकर इन भंडारों की खोज और दोहन की दिशा में तेजी से कदम उठा रहे हैं।

व्यावसायिक संभावनाएँ और स्थानीय रोजगार

इन धातुओं के निष्कर्षण और शुद्धिकरण से जुड़े उद्योगों में भारी निवेश की आवश्यकता है। लेकिन साथ ही यह क्षेत्र स्थानीय रोज़गार का एक बड़ा स्रोत बन सकता है। छत्तीसगढ़ और ओडिशा जैसे खनिज समृद्ध राज्यों में हरित अर्थव्यवस्था का यह रास्ता ग्रामीण विकास को नई दिशा देगा।

एक चेतावनी भी — पर्यावरणीय संतुलन

रेयर अर्थ माइनिंग पर्यावरण के लिए खतरा बन सकती है अगर इसे संतुलित नीति के तहत न किया जाए। इसलिए यह ज़रूरी है कि भारत सतत विकास के सिद्धांतों को अपनाए। आधुनिक तकनीकों के साथ इको-फ्रेंडली माइनिंग मॉडल ही एक स्थायी समाधान है।

तो क्या हम तैयार हैं? खनिज तो हैं, नीति भी है — अब बस इच्छाशक्ति और सतर्कता की दरकार है।

भारत और वैश्विक सहयोग: भविष्य की खनिज कूटनीति

कुछ साल पहले तक शायद ही किसी ने रेयर अर्थ मेटल्स के बारे में अख़बार में पढ़ा हो। लेकिन आज—2025 में—यह शब्द सिर्फ वैज्ञानिक या उद्योग विशेषज्ञों के लिए नहीं रह गया है। अब यह भारत की विदेश नीति और वैश्विक साझेदारी का एक अहम हिस्सा बन चुका है।

आप सोचिए, अगर मोबाइल, मिसाइल और मोटरबाइक—तीनों के लिए एक ही संसाधन चाहिए, तो क्या वह केवल घरेलू स्रोतों से संभव होगा? जवाब है नहीं। और यहीं से शुरू होता है भारत का नया अध्याय—विदेशों से रेयर अर्थ साझेदारी

ऑस्ट्रेलिया: भारत का भरोसेमंद रणनीतिक साझेदार

ऑस्ट्रेलिया, जो दुनिया के प्रमुख रेयर अर्थ उत्पादकों में से एक है, अब भारत के साथ मिलकर सप्लाई चेन डाइवर्सिफिकेशन पर काम कर रहा है। 2022 में दोनों देशों के बीच हुई समझौतों की लहर अब स्थिर व्यापारिक सहयोग में बदल चुकी है।

एक वरिष्ठ अफसर ने हाल ही में कहा था—“हम केवल कच्चा माल नहीं, मूल्यवर्धित उत्पादों पर फोकस कर रहे हैं।” और यह वाकई बड़ी बात है। क्योंकि इसका मतलब है—भारत सिर्फ एक ग्राहक नहीं, बल्कि एक सह-उत्पादक बन रहा है वैश्विक तकनीकी आपूर्ति श्रृंखला में।

अफ्रीका: खनिजों का नया गढ़

जैसे-जैसे चीन की पकड़ मजबूत होती गई, दुनिया ने नजरें कहीं और मोड़ीं—और तब अफ्रीका सामने आया। नाइजीरिया, रवांडा, मेडागास्कर जैसे देशों में रेयर अर्थ संसाधनों की खोज ने भारत को अवसर दिया। भारत अब इन देशों के साथ रणनीतिक रूप से जुड़ रहा है, न केवल खनन के लिए, बल्कि स्थानीय समुदायों के विकास के लिए भी।

कभी-कभी एक छोटा कदम—जैसे अफ्रीकी देशों के साथ भूवैज्ञानिक डेटा साझा करना—बहुत बड़ा रणनीतिक असर पैदा करता है।

यह केवल व्यापार नहीं, यह नीति है

आज जब भारत “आत्मनिर्भर भारत” का सपना देखता है, तो यह साझेदारियाँ सिर्फ मौद्रिक लेन-देन नहीं हैं। यह साझेदारियाँ भविष्य के लिए हैं। यह सवाल पूछती हैं—“क्या हम रणनीतिक रूप से तैयार हैं?”

और इसी से जुड़ा है भारत का खुद का खनन बुनियादी ढांचा विकसित करने का लक्ष्य। विदेशी सहयोग उसका एक हिस्सा है—पर भरोसा पूरी तरह उस पर नहीं।

क्या हम सही दिशा में हैं?

यह सवाल बार-बार उठता है। लेकिन जब आप देखते हैं कि भारत एक ओर अमेरिका के साथ Indo-Pacific रणनीति में भाग ले रहा है, और दूसरी ओर अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया से खनिज समझौते कर रहा है—तो समझ आता है कि शायद, हाँ, हम सही दिशा में हैं।

इस विषय पर IndiaTimes की यह रिपोर्ट अवश्य पढ़ें जो इन कूटनीतिक प्रयासों की गहराई को सरल भाषा में समझाती है।

और अंत में... विदेश नीति केवल भाषण नहीं होती। वह रणनीतिक, सूक्ष्म और दीर्घकालीन होती है। और रेयर अर्थ सहयोग इसका नया चेहरा है।

Tech Innovations Made Possible by Rare Earths

चलिए थोड़ा सा पीछे चलते हैं। एक समय था जब बैटरी से चलने वाली कारें सिर्फ कल्पना थीं। लेकिन आज, इलेक्ट्रिक व्हीकल्स (EVs) न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया भर में क्रांति ला रहे हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इन कारों के दिल में क्या धड़कता है? जवाब है — रेयर अर्थ मेटल्स

रेयर अर्थ मेटल्स: EVs का असली ईंधन

हम अक्सर सुनते हैं कि EVs पर्यावरण के लिए अच्छे हैं, लेकिन उनके निर्माण में जिन मैग्नेट्स, बैटरी कंपोनेंट्स और मोटर्स का उपयोग होता है — वे बिना रेयर अर्थ एलिमेंट्स के संभव नहीं। जैसे कि नीडियम (Neodymium), प्रासोडीमियम (Praseodymium) और डिस्प्रोसियम (Dysprosium)। ये नाम भले ही रासायनिक किताबों जैसे लगें, लेकिन ये ही EVs को ऊर्जा, गति और स्थिरता देते हैं।

भारत की EV क्रांति और उसकी सबसे बड़ी चुनौती

भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों की मांग तो बढ़ रही है — सरकार FAME II जैसी नीतियों से इसे गति देने की कोशिश कर रही है। लेकिन सच यही है: "अगर रेयर अर्थ मेटल्स की सुनिश्चित आपूर्ति न हो, तो भारत की EV क्रांति वहीं ठहर जाएगी।"

और जब हम देखें कि चीन लगभग 80% ग्लोबल सप्लाई को नियंत्रित करता है, तो यह और स्पष्ट हो जाता है कि भारत को अपनी मिनिंग, प्रोसेसिंग और इन्वेस्टमेंट क्षमताएं तुरंत मजबूत करनी होंगी।

एक व्यक्तिगत अनुभव: बैंगलोर की EV स्टार्टअप

कुछ महीने पहले मैंने एक स्टार्टअप फाउंडर से बात की जो बैंगलोर में EV मोटर डिजाइन कर रहे थे। उन्होंने कहा, “सर, सब कुछ हमारे पास है — टेक्नोलॉजी, यूथ, सपोर्ट — लेकिन रेयर अर्थ मटेरियल्स की अनिश्चितता सबसे बड़ा खतरा है।”

और यही वजह है कि अगर भारत को टेक्नोलॉजी सुपरपावर बनना है, तो इन दुर्लभ धातुओं पर नियंत्रण पाना ही होगा।

EVs से आगे भी है भविष्य

रेयर अर्थ मेटल्स सिर्फ गाड़ियों तक सीमित नहीं हैं। ड्रोन, स्मार्टफोन, विंड टरबाइन्स, स्पेस टेक्नोलॉजी — हर जगह इनका उपयोग होता है। EV सिर्फ एक उदाहरण है जो हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम इन साधनों की सुरक्षा को गंभीरता से ले रहे हैं?

आने वाले वर्षों में, भारत की हरित अर्थव्यवस्था की सफलता काफी हद तक इस पर निर्भर करेगी कि हम इन संसाधनों को कैसे सुरक्षित करते हैं, कैसे प्रोसेस करते हैं, और कैसे Atmanirbhar Bharat के अंतर्गत उनका स्वदेशी उपयोग करते हैं।

नवीन ऊर्जा और रोज़मर्रा की तकनीक में रेयर अर्थ मेटल्स की भूमिका

आप कभी सोचते हैं, वो छोटा सा मोबाइल फोन जो आपकी जेब में है — उसमें पृथ्वी के सबसे दुर्लभ खनिज शामिल हैं? या वो विशाल विंड टरबाइन जो आपकी बिजली की ज़रूरत पूरी कर रही है — वह भी उन्हीं तत्वों पर निर्भर है जिन्हें हम 'rare earths' कहते हैं।

रिन्यूएबल एनर्जी में रेयर अर्थ की जरूरत क्यों है?

जब हम पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा की बात करते हैं, तो उसमें प्रमुख भूमिका निभाते हैंनेओडिमियम (Neodymium) और डिस्प्रोसियम (Dysprosium) जैसे rare earth तत्व। इनका इस्तेमाल होता है विंड टरबाइनों के मैग्नेट में, जिससे उन्हें तेज़ और टिकाऊ बनाया जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार, रिन्यूएबल एनर्जी का भविष्य पूरी तरह इन खनिजों की उपलब्धता पर निर्भर करता है। भारत जैसे देश, जो आत्मनिर्भर ऊर्जा की ओर बढ़ रहे हैं, उन्हें इन खनिजों की सप्लाई सुनिश्चित करनी ही होगी।

मोबाइल, लैपटॉप और गैजेट्स में rare earths

चलिए मोबाइल फोन की बात करते हैं — उसके स्पीकर, स्क्रीन, vibration मोटर, और कैमरे में प्रयुक्त होते हैं लैंथेनम, यूरोपियम और टेरबियम जैसे रसायन। क्या आपने कभी नोट किया कि फोन की screen कितनी चमकदार होती है? वो चमक भी rare earths की देन है।

यही नहीं, लैपटॉप, स्मार्टवॉच, Bluetooth हेडसेट्स और यहां तक कि LED बल्ब तक — ये सब तकनीक rare earth मेटल्स के बिना अधूरी होती। आप हर दिन इनका इस्तेमाल करते हैं, लेकिन शायद ही इन्हें महसूस करते हैं।

यही वजह है कि हमने पिछले लेख में यह ज़ोर दिया था कि भारत को अपनी खुद की rare earth सप्लाई श्रृंखला बनानी चाहिए, ताकि वह तकनीक के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सके।

एक छोटा तत्व, लेकिन असर बड़ा

कई बार लोग पूछते हैं — "rare earths तो बहुत छोटे-छोटे पार्ट्स में ही इस्तेमाल होते हैं, फिर इतना हंगामा क्यों?" पर आप सोचिए, अगर किसी इंजीनियर ने मोबाइल में vibration हटाया, तो कितना अनुभव बदलेगा? या अगर विंड टरबाइन का मैग्नेट थोड़ा कमजोर हो गया तो बिजली उत्पादन कितना गिर सकता है?

यही तो गीता भी कहती है — “थोड़ा भी किया गया धर्म बड़ा असर करता है।” वैसे ही, rare earths भी छोटे हैं, पर उनका प्रभाव विशाल है।

हमारे ब्लॉग पर आगे पढ़ें कि कैसे rare earths भारत की डिजिटल, ऊर्जा और रक्षा नीतियों का केंद्र बिंदु बनते जा रहे हैं।

भारत के लिए आगे का रास्ता: चुनौतियाँ और संभावनाएँ

कभी-कभी लगता है कि तकनीक की दुनिया में आगे बढ़ना महज़ इनोवेशन या स्टार्टअप्स की बात नहीं है। असली गेम तो संसाधनों का है। और रेयर अर्थ धातुएँ—वो तो जैसे इस सदी की चुपचाप चलती क्रांति हैं।

बाधाएँ जो भारत को रोक सकती हैं

अगर हमें अपने देश में रेयर अर्थ मेटल्स के उत्पादन को बढ़ाना है, तो सबसे पहले हमें भू-राजनीतिक जटिलताओं से पार पाना होगा। चीन की मोनोपॉली, अफ्रीका में निवेश की दौड़, और पर्यावरणीय नियम—इन सबके बीच भारत को अपना रास्ता खुद बनाना है। और यह आसान नहीं है।

दूसरी बड़ी चुनौती है—खनन की तकनीक और विशेषज्ञता। रेयर अर्थ खनन बेहद जटिल होता है। यह सिर्फ खुदाई नहीं है; यह परिशुद्धता, प्रौद्योगिकी और पारदर्शिता की मांग करता है। और यही वह क्षेत्र है जहां भारत को अभी बहुत कुछ सीखना है।

संभावनाएँ: जब भारत बढ़ सकता है आगे

पर कहावत है ना, "जहाँ चाह, वहाँ राह।" अगर भारत नीतिगत स्पष्टता और लंबी अवधि की रणनीति अपनाए, तो यह क्षेत्र हमारे लिए वरदान साबित हो सकता है।

कल्पना कीजिए—अगर भारत रेयर अर्थ उत्पादन में आत्मनिर्भर बन जाए, तो हम न केवल ईवी उद्योग में तेजी ला सकते हैं, बल्कि क्लीन एनर्जी मिशन में भी अग्रणी बन सकते हैं। डिफेंस से लेकर मोबाइल तक—हर सेक्टर को स्थिर आपूर्ति का लाभ मिलेगा।

आज जब वैश्विक पटल पर हर देश अपने संसाधनों को लेकर सतर्क हो गया है, तब भारत को "आत्मनिर्भर भारत" के मंत्र को इस क्षेत्र में भी सार्थक करना होगा।

तो क्या है समाधान?

भारत को नीति, विज्ञान और निवेश—तीनों स्तरों पर सामंजस्य लाना होगा।

  • स्थानीय खनन कंपनियों को तकनीकी सहायता देना
  • विदेशी साझेदारियों को सुरक्षित करना
  • रीसाइक्लिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित करना

और सबसे जरूरी—जनभागीदारी। जब लोग समझेंगे कि यह सिर्फ खनिज नहीं, बल्कि राष्ट्र का भविष्य है, तभी असली परिवर्तन आएगा।

क्योंकि रेयर अर्थ वास्तव में उतनी "रेयर" नहीं हैं, जितनी कि हमारी इच्छा शक्ति और दूरदृष्टि कभी-कभी होती है।

भारत के भविष्य की धुरी: दुर्लभ पृथ्वी धातुओं की निर्णायक भूमिका

अगर कोई मुझसे पूछे कि भारत की अगली तकनीकी छलांग किस चीज़ पर टिकी है, तो मैं बिना झिझक कहूँगा—दुर्लभ पृथ्वी धातुओं पर। हाँ, वही छोटे-छोटे खनिज जिनका नाम ज़्यादातर लोगों ने कभी स्कूल की किताबों में भी नहीं सुना। पर अब समय आ गया है जब ये अनसुने नाम, हमारी रणनीति, हमारी तकनीक और हमारी सुरक्षा नीति के केंद्र में हों।

बीते दशकों में भारत ने कई मोर्चों पर आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम बढ़ाए हैं—कभी हरित क्रांति, कभी स्पेस टेक्नोलॉजी, तो कभी डिजिटल इंडिया। पर अब एक नया अध्याय लिखने का समय है—रेयर अर्थ मेटल्स की खोज और नियंत्रण

दुनिया की दौड़ में भारत कहाँ खड़ा है?

चीन की बादशाहत को टक्कर देने के लिए, भारत को सिर्फ तकनीक में तेज नहीं बनना, बल्कि आपूर्ति श्रृंखला (supply chain) को भी अपने नियंत्रण में लेना होगा। सोचिए, अगर EV, ड्रोन, या सैटेलाइट्स बनाने की क्षमता हो, लेकिन रेयर अर्थ मेटल्स के लिए किसी दूसरे देश पर निर्भरता हो, तो क्या यह आत्मनिर्भर भारत होगा?

आज जो देश इन संसाधनों पर अधिकार रखता है, वही अगली सदी की दिशा तय करेगा। जम्मू-कश्मीर में लिथियम की खोज इसका पहला संकेत है—पर अब नीति और निवेश दोनों चाहिए।

समझदारी से तय होगी स्थिति

बात केवल खनन की नहीं है। यह तय करने की भी है कि हम इन संसाधनों को कैसे इस्तेमाल करें—क्या हम इन्हें चीन जैसी मोनोपोली में बदलना चाहते हैं या एक न्यायपूर्ण और हरित तकनीकी भविष्य के साधन के रूप में देखना चाहते हैं?

सरकार की Atmanirbhar Bharat पहल का यह अगला चरण है—जहाँ खनन, प्रोसेसिंग, रिसर्च और निर्यात सभी को एकीकृत रणनीति के तहत देखा जाए।

एक आह्वान—नीति निर्धारकों और नवाचारकों के लिए

यदि भारत को अगले दशक में तकनीकी महाशक्ति बनना है, तो रेयर अर्थ मेटल्स सिर्फ खनिज नहीं, रणनीतिक संसाधन हैं। नीति-निर्धारकों को चाहिए कि वे इस पर स्पष्ट, दीर्घकालिक योजना बनाएँ। और युवाओं, स्टार्टअप्स, रिसर्चर्स को यह समझना होगा कि इन खनिजों से जुड़ी हर पहल—भारत को वैश्विक मानचित्र पर मजबूत करती है।

अंतिम विचार

दुर्लभ पृथ्वी धातुएँ भारत के लिए केवल संसाधन नहीं हैं। ये हमारे भविष्य का चौराहा हैं। अगर आज सही निर्णय लिए गए, तो आने वाली पीढ़ियाँ इसे स्वर्ण युग की शुरुआत के रूप में याद रखेंगी।

आगे क्या? स्वच्छ ऊर्जा के भविष्य में भारत की भूमिका पर हमारी विस्तृत रिपोर्ट पढ़ना न भूलें।

Tags:

Post a Comment

0Comments

Post a Comment (0)